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Agency | Aug 11, 2021 | Automobile News
समय की मांग है ई-बस का चलन
भारत में इलेक्ट्रिक मोबिलिटी का सिलसिला विश्व के अन्य देशों की तुलना में पिछड़ता हुआ दिखाई देता है। ज्यादातर विकसित देशों में इलेक्ट्रिक व्हीकल कंपनियां टाॅप-डाउन एप्रोज अपनाते हुए जनता के लिए इलेक्ट्रिक व्हीकल बनाने पर फोकस कर रही है। भारत में 10 साल पहले पहली ईवी लांच हुई थी, हालांकि इसके बाद इस दिशा में कोई ज्यादा प्रगति नहीं हुई है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में इलेक्ट्रिक 2 व 3 व्हीलर्स मार्केट में आ गए हैं और उनका चलन शुरू हो गया है। ऐसे में इंडिया में बाॅटम-अप एप्रोच देखने को मिल रही है।
लेकिन इसके समानांतर पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इलेक्ट्रिफिकेशन होने से क्या ईवी इकोसिस्टम का डवलपमेंट तेज हो सकता है? उदाहरण के लिए ई-बस आने से इलेक्ट्रिफाइड ट्रांसपोर्ट नेटवर्क और इंफ्रास्ट्रक्चर बन सकता है, जिसका फायदा व्यक्तिगत कार ओनर्स को मिल सकेगा। इसके अलावा पब्लिक ट्रांसपोर्ट ऑपरेशंस बड़े पैमाने पर सबसिडाइज्ड होते हैं। ऐसे में अगर ई-बसों की संख्या बढाई जाए तो क्या इसके जरिए इलेक्ट्रिक मोबिलिटी बेहतर हो सकती है, यह भी बड़ा सवाल है?
कई राज्य धीरे -धीरे अन्य बसों के साथ ई-बसों को भी उनकी व्हीकल फ्रलीट में शामिल कर रहे हैं। सरकार की फेम (फास्ट एडाॅप्शन एंड मैन्युपफैक्चरिंग ऑफ इलेक्ट्रिक व्हीकल्स) स्कीम के तहत गोवा, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश ने ई-बसों का संचालन शुरू कर दिया है। सरकार के मुताबिक उसने 65 शहरों में 6200 ई-बस चलाने की मंजूरी दे दी है। इनमें से कई पटना, मुंबई, इंदौर, लखनऊ , दिल्ली और कोलकाता जैसे शहरों में चल रही हैं और अगले दशक में इनकी संख्या कई गुना बढ़ाने की योजना है। तमिलनाडु अगले कुछ वर्षों में 2000 ई-बसें चलाने की तैयारी कर रहा है, जिनमें से 500 इस वर्ष शुरू हो जाएंगी।
अन्य सभी ईवी की तरह ई-बसों की काॅस्ट भी कन्वेंशनल आईसीई (इंटरनेल कंबशन इंजन) बसों की तुलना में कापफी कम होती है। हालांकि शुरूआती दौर में ई-बसें चलाना महंगा पड़ सकता है, लेकिन बाद में लंबे समय के लिए इन्हें चलाने पर काॅस्ट डीजल बसों की तुलना में बहुत कम हो जाती है। पर्यावरण को स्वच्छ रखने के लिए भी ई-बसें अच्छा विकल्प है।
कंसल्टेंसी कम्पनी किअनी इंडिया के पार्टनर राहुल मिश्रा कहते हैं कि यदि मुख्य उद्देश्य काॅर्बन फुटप्रिंट कम करना है तो इसके लिए कई टेक्नोलाॅजीज उपलब्ध् हैं (और सरकार उन सभी के बारे में बात करती है) जैसे ईवी, सीएनजी, एलएनजी, फ्रयूल सेल, हाइड्रोजन इत्यादि। हालांकि पब्लिक ट्रांसपोर्ट में जो टेक्नोलाॅजी सस्ती होगी, उसकी ही स्वीकार्यता बढ़ेगी। यदि सरकार का टार्गेट काॅर्बन फुटप्रिंट कम करने का है तो इसके लक्ष्य तय करते हुए टेक्नोलाॅजी सिलेक्शन का काम इंडस्ट्री पर छोड़ देना चाहिए।
कंसल्टेंसी कम्पनी रोनाल्ड बर्गर इंडिया के मैनजिंग पार्टनर सौमित्रा सहगल ने कहा कि कीमतें ज्यादा होने से ई-बसों को केंद्र और राज्य से सब्सिडी की जरूरत है, जिससे इन्हें चलाना संभव हो सके। इनको चलाने में सिर्फ फाइनेंशियल ही नहीं, साइकोलाॅजिकल दिक्कतें भी हैं, खास तौर से इंटरसिटी ट्रैवल में। इस समय 9 मीटर आईसीई बस की कीमत करीब 60 लाख रुपए है, जबकि इसी साइज की ई-बस की कीमत 1 करोड़ से 2 करोड़ के रुपए के बीच होती है, जो उसके फीचर और बैटरी कैपेसिटी पर निर्भर है।
केन्द्र सरकार अन्य व्हीकल्स कैटेगरी की तुलना में ई-बसों के लिए ज्यादा सब्सिडी दे रही है जो वर्तमान में 20,000 रुपए प्रति किलोवाट है। इस तरह 300 किलोवाट बैटरी कैपेसिटी वाली ई-बस के लिए यह राशि 6 लाख रुपये हो जाती है। पिफर भी यह अपफ्रन्ट काॅस्ट का एक बहुत कम हिस्सा है। सहगल के मुताबिक ऑपरेटिंग व मेंटेनेंस काॅस्ट कम होने से ई-बसें सस्टेनेबल साॅल्यूशन हो सकती है। प्राइवेट ईवी और उनके लिए राष्ट्रीय स्तर पर चार्जिंग नेटवर्क की तुलना में इंट्रा-सिटी ई-बसों के लिए सिर्फ कुछ डिपो पर ही चार्जिंग स्टेशन बनाने की जरूरत होगी, क्योंकि यह बसें पाॅइंट-टु-पाॅइंट चलती हैं इसके बावजुद और भी चुनौतिया हैं। वर्तमान में टाटा, अशोक लीलैंड और चीन की बीवाईडी जैसी कंपनियां राज्यों में स्टेट ट्रांसपोर्ट अंडरटेकिंग्स (एसटीयू) से कांट्रेक्ट लेनेे की होड़ में हैं। काॅस्ट-बेनिपिफट एनालिसिस में बैटरी साइज और कैपेसिटी पर ध्यान दिया जाता है। मल्टीपल चार्जिंग प्रोटोकाॅल्स और फाॅर्मेट्स चुनने में जटिलताएं पैदा हो सकती है। एसटीयू को प्लग-इन चार्जिंग फाॅर्मेट को चुनना चाहिए या बैटरी स्वैप माॅडल अपनाना चाहिए या पैंटाग्राफ चार्जिंग सेट-अप लगाना चाहिए? एक के बाद एक इनका चयन करने से फ्रेगमेंटेड चार्जिंग नेटवर्क बनेगा, जिससे इंटरऑपरेटिबिलिटी कम होती है। इसके अलावा एसटीयू या बस ऑपरेटर जो अलग चार्जिंग फाॅर्मेट का उपयोग करते हैं, वे इनका उपयोग नहीं कर सकते।
इनमें से कुछ चार्जिंग स्टेशंस की काॅस्ट 3.5 लाख डाॅलर से ज्यादा है और अगर उपयोग नहीं होता है तो इन्हें लगाना सपफेद हाथी पालने जैसा होगा। सरकार स्टैंडर्डाइजेशन के मुद्दे का अध्ययन कर रही है। काॅमन स्टैंडर्ड होने से लोकलाइजेशन को प्रमोट करने में मदद मिलेगी और आगे चलकर बड़े पैमाने पर लाभ होगा। इसके अलावा ईवी इकोसिस्टम के क्रिएशन और सस्टेंनेंस को समानांतर रूप से डवलप किया जाना चाहिए।
कंसल्टेंसी फर्म सेलेरिस टेक्नोलाॅजीज के चेयरमैन वी सुमंत्रान का कहना है कि निकट भविष्य में ईवी इकोनाॅमिकली वायेबल होगी। अगर हमारे इलेक्ट्रिसिटी ग्रिड का कुछ हिस्सा रिन्यूएबल सोर्सेज से फीड किया जाए, तब यह साॅल्यूशन कारगर हो सकता है। हालांकि वह यह भी कहते हैं कि पर्यावरण पर बोझ कम करने के लिए बैटरियों की रिसाइक्लिंग की सख्त जरूरत है।
भारतीय सड़कों पर धुआँ उड़ाते हुए डीजल से चलने वाली बसों की बजाय ई-बसेज एक बेहतर और ज्यादा लोकतांत्रिक विकल्प हो सकता है। पब्लिक ट्रांसपोर्ट के इलेक्ट्रिफिकेशन के लिए सरकार को समग्रता से इस मुद्दे पर फोकस करना चाहिए।