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Agency | Feb 27, 2023 | Taxation Update
जीएसटी को किस तरह बनाया जा सकता है सरल और व्यवहारिक ?
गुड्स एंड सर्विस टैक्स को भारत में 2017 में पेश किया गया था और अब 5 साल से अधिक समय बीत चुका है लेकिन जीएसटी परिषद और वित्त मंत्रालय के लगातार प्रयासों के बाद भी व्यापार और उद्योग इसके साथ बहुत सहज नहीं है। आइए उन आवश्यक कदमों पर एक नजर डालते हैं ओर ये कदम वे सुधार होंगें जिनके लागू होने पर जीएसटी अप्रत्यक्ष करों की एक बहुत ही सरल और उपयोगी एवं करदाता के अनुकूल प्रणाली बन सकेगी। आइये देखें कुछ उपयोगी सुझावः-
1. जीएसटी एक आपूर्तिकर्ता अर्थात विक्रेता आधारित टैक्स बनता जा रहा है और इस समय आपूर्तिकर्ता द्वारा प्रदान की गई सभी जानकारी ही इस कर प्रणाली का आधर है और इस तरह से केवल एकतरफा मामला बनता जा रहा है और इस कारण से ईमानदार खरीददार अपनी इनपुट क्रेडिट रुकने के कारण संकट का सामना कर रहें हैं।
हालांकि जीएसटी की अवधरणा को जब पहली बार देश में प्रस्तुत किया गया था तो यह एक तरफा प्रणाली नहीं थी। प्रारम्भ में जो रिटर्न भरने की स्कीम बनाई गई थी उसमें प्राप्तकर्ता के पास उस विभाग को सूचित करने का भी अवसर होता था जिससे उसने माल खरीदा है लेकिन यह प्रणाली कभी लागू ही नहीं हो पाई।
खरीददार की आईटीसी को रोकने की प्रक्रिया इस समय केवल आपूर्तिकर्ता या सप्लायर द्वारा प्रस्तुत की गई जानकारी जो कि गस्टर-1 पर आधारित है और उस स्थिति में यदि किसी सप्लायर ने सामान बेचने के बाद भी इसे नहीं दिखाया है या खरीदार से एकत्र किए गए कर का सरकार को भुगतान नहीं किया है और वर्तमान में उस मामले और तथ्य की सच्चाई की जानकारी के पहले ही विभाग क्रेता की ITC को रोक रहा है।
यह एक बहुत बड़ी समस्या है और इस समस्या का समाधान खरीददारों को अपनी खरीद का विवरण देखाने की अनुमति देना है। यह जीएसटी की मूल योजनाओं में था और इसे निर्दोष और कानून का पालन करने वाले खरीददारों की समस्या को दूर करने के लिए लागू किया जाना चाहिए।
क्रेता को अपने रिटर्न में अपने द्वारा खरीद का विवरण मय विक्रेता के नाम के साथ देने की प्रणाली प्रारम्भ होनी चाहिए और इसके बाद क्रेता एवं विक्रेता द्वारा प्रस्तुत विवरणों का मिलान किया जाना चाहिए और मिस्मेच को क्रेता और विक्रेता दोनों के खातों में पोस्ट किया जाना चाहिए और यदि प्राप्तक्रर्ता यह साबित कर देता है कि उसकी खरीदारी वास्तविक है और उसके द्वारा विक्रेता को कर का भुगतान किया गया है तो मिसमैच के सम्बन्ध में खरीददार के इनपुट क्रेडिट को रोकने की जगह इसकी वसूली विक्रेता से की जानी चाहिए।
2. बाधारहित इनपुट क्रेडिट की शुरुआत से ही करदाताओं को किया गया वादा था लेकिन पिछले 5 वर्षों में ITC व्यवसाय करने में प्रमुख समस्या बनती जा रही है। जीएसटी कानून के एक प्रावधन के अनुसार जो कि केंद्रीय माल और सेवा कर अधिनियम 2017 की धारा 16 (4) में दिया गया है, एक निश्चित तिथि के बाद डीलर किसी विशेष वित्तीय वर्ष के लिए ITC का दावा नहीं कर सकता है अर्थात एक निश्चित तिथि तक ITC नहीं ली है तो पिफर इस ITC को क्लेम नहीं किया जा सकता है।
वर्तमान में यह तिथि वित्तीय वर्ष के लिए उस वर्ष के बाद वाले, वर्ष की 30 नवंबर है लेकिन यह तिथि व्यावहारिक तिथि नहीं है। ज्यादातर मामलों में गलतियों का पता तब चलता है जब वार्षिक रिटर्न दाखिल किया जाता है और आईटीसी प्रतिबंध् की यह तारीख डीलर द्वारा वार्षिक रिटर्न दाखिल करने तक आगे बढ़ाई जानी चाहिए। यदि डीलर देय तिथि के बाद वार्षिक रिटर्न दाखिल कर रहा है तो वह विलम्ब शुल्क का भुगतान कर रहा है इसलिए उस स्थिति में उसका ITC इन प्रावधनों के कारण प्रतिबंधित नहीं होना चाहिए क्योंकि एक बार कर सरकार को प्राप्त हो जाने के बाद ITC खरीदार का अधिकार होना चाहिए।
यहां देखिए सरकार को टैक्स पहले ही मिल चुका है और अगर देर से चुकाया गया तो सप्लायर से ब्याज भी वसूला गया है तो इस इनपुट क्रेडिट को दिए जाने पर रेवेन्यू पर किसी भी तरह का नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता हैं
3. RCM को भारत में GST की शुरुआत के समय बहुत व्यापक तरीके से पेश किया गया था लेकिन कुछ समय में ही इसे अव्यवहारिक प्रावधन माना गया एवं चार माह के भीतर इसे बहुत बड़े हिस्से से हटा दिया गया था लेकिन अभी भी विशिष्ट RCM कानून में मौजूद है और यह बचा हुआ RCM भी बहुत से डीलर्स के लिए परेशानी बना हुआ है। यहां RCM का मतलब है ज्यादातर मामलों में, डीलर RCM का भुगतान करें और उसी का ITC तुरंत प्राप्त कर लें, इसलिए जहां तक सरकार के राजस्व का संबंध् है, इसका कोई प्रावधन नहीं पड़ता है। इन मामले में देखें तो यह केवल एक तकनीकी औपचारिकता है लेकिन कुछ मामलों में डीलर अपने रिटर्न में आरसीएम दिखाने की औपचारिकता पूरी करने में विपफल रहे जबकि उन्होंने पूरा टैक्स चुकाया है। इन डीलरों को इस तकनीकी दोष से मुक्त करने के लिए एक माफी योजना होनी चाहिए क्योंकि जीएसटी के प्रारम्भिक 5 वर्षों में इस सम्बन्ध् में डीलर्स से यह गलती बहुत हुई है लेकिन जैसा कि उपर बताया गया है कि अधिकांश मामलों में सरकार को राजस्व का कोई नुकसान भी नहीं हो रहा है।
4. GST को भारत में सबसे बड़े कर सुधार के रूप में पेश किया गया था लेकिन शुरुआत में औपचारिकाएं और प्रक्रियाएं बहुत जटिल थी और अभी भी सरलीकरण नहीं हुआ है। डीलरों द्वारा बहुत सी निर्दोष गलतियां की गई और अब उन्हें बहुत सारे नोटिस प्राप्त हो रहे हैं जो बाद में मुकद्मेबाजी और विवादों में परिवर्तित हो जाएंगे। सभी गलतियां टैक्स चोरी नहीं होती हैं व ज्यादातर मामलों में ये गललियां केवल निर्दोष एवं तकनीकी गलतियां होती हैं। डीलर्स द्वारा व्यक्गित नोटिसों के ढेर सारे जवाब देने संबंध्ति बोझ डालने के बजाय, मामले को एमनेस्टी योजना के साथ सुलझाया जाना चाहिए ताकि वे इन गलतियों को व्यवस्थित तरीके से विभाग को सूचित कर सकें और सुधार कर सकें।
आरसीएम, धारा 16(4) आदि भी एमनेस्टी स्कीम का हिस्सा होना चाहिए और एमनेस्टी को सिर्फ लेट फीस माफी तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए और यहां यह भी ध्यान दिया जाए कि अंतिम एमनेस्टी स्कीम में कंपोजिशन डीलरों को बिना वजह इस स्कीम से बाहर रखा गया था। इस एमनेस्टी स्कीम में एक विशेष राहत के तहत कम्पोजीशन डीलर्स को भी शामिल किया जाना चाहिए जिसमें उनके पिछले छूटे हुए रिटन्र्स भी शामिल होने चाहिए।
5. उन डीलरों के मामले में जिनका प्लांट और मशीनरी जैसी अचल संपत्तियों में निवेश बहुत अधिक है और उस स्थिति में उनका ITC का क्रेडिट बैलेंस बहुत अधिक हो जाता है और चूंकि वे पंजीकृत डीलरों से कच्चा माल और सेवाएं भी खरीदते हैं जिससे भी उनकी इनपुट क्रेडिट और भी बढ़ जाती है, इसलिए उन्हें एक लम्बे समय तक उनकी कार्यशील पूंजी इस तंत्रा में पफंस जाती है। इन डीलरों को इस तरह एकत्रा आईटीसी के चलते अपनी कार्यशील पूंजी के ब्लाक होने से कुछ राहत देने के लिए एक प्रावधान होना चाहिए। मान लीजिये कर का कुछ प्रतिशत जैसा कि व्यवहारिक रूप से विशेषज्ञों की समिति तय करे को रोकर शेष रकम रिफंड कर दी जानी चाहिए ताकि इस तरह के डीलर्स की कार्यशील पूंजी पर लगने वाली लागत को कम कर उन्हें वाछित राहत दी जा सके।
6. भारतीय संविधन के अनुसार स्थापित एक जीएसटी परिषद है जो सरकार को जीएसटी के संबंध् में सलाह देने का कार्य करती है। इस जीएसटी काउंसिल की सलाह के अनुसार धारा 49 (10) के अनुसार एक प्रावधान लाया गया जिसके अनुसार एक ही पैन नम्बर पर लिए गए अलग-अलग रजिस्ट्रेशन के तहत कैश लेजर में रखी रकम को आपस में ट्रांसफर करने की सुविध दी गई थी लेकिन अभी भी जीएसटी नेटवर्क पर यह सुविधा शुरू नहीं हुई है। 5 जुलाई 2022 को यह परिवर्तन कानून में किया गया था लेकिन अभी तक भी यह सुविधा जीएसटी नेटवर्क पर उपलब्ध् नहीं है।
7. जीएसटी के तहत ब्याज दर 18%है जो इस तथ्य को देखते हुए बहुत अधिक है कि बैंक दर इसके आस-पास भी नहीं है। जीएसटी के देरी से किये गए भुगतान के लिए ब्याज की दर बैंक ऋण दर से 2%अधिक होनी चाहिए। 18%की दर तय की गई थी जब बैंक ऋण की दर बहुत अधिक थी, लेकिन अब जब बैंक की दर इतनी अधिक नहीं है तो यह 18%की दर बहुत अधिक है और इसमें संशोध्न की आवश्यकता है जो कि शीघ्र ही किया जाना चाहिए। प्रायोगिक तौर पर ब्याज की दर को घटा कर 12 प्रतिशत किया जाना चाहिए।
8. अपीलीय न्यायाधिकरण की स्थापना की प्रक्रिया तेज की जाए। जुलाई 2017 में जीएसटी की शुरुआत के बाद से, करदाताओं को व्याख्यात्मक और तकनीकी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिसके परिणामस्वरूप जीएसटी कानूनों के संबंध् में लंबी मुकदमेबाजी हुई है या हो सकती है। जीएसटी अपीलीय न्यायाधिकरण की अनुपस्थिति में, करदाता अवसर उच्च न्यायालयों से राहत पाने के लिए रिट क्षेत्राधिकार को विकल्प के तौर पर काम में लेते हैं लेकिन सभी करदाताओं के लिए यह संभव नहीं है। लंबित मामलों की संभावना को देखते हुए जीएसटी अपीलीय न्यायाधिकरण (जीएसटीएटी) के गठन का अब कापफी इंतजार किया जा रहा है।
9. संशोधनों, परिपत्रों और स्पष्टीकरणों की संख्या बहुत अधिक है और इसने अधिनियम की पूरी योजना को बहुत अधिक जटिल बना दिया है। जीएसटी कानून में बार-बार बदलाव करने के बजाय इसे अधिक स्थिर और व्यवहारिक बनाने के लिए कानून के सभी प्रावधनों पर फिर से विचार करने के लिए एक विशेष विशेषज्ञ समिति नियुक्त की जानी चाहिए। अब 5 साल बीत चुके हैं लेकिन अभी भी जीएसटी कानून में वह स्थिरता नहीं है जो कि भारत में जीएसटी की सफलता और इसे उपयोगकर्ता के अनुकूल बनाने के लिए जरूरी हैं
10. पिछले एक साल के दौरान यह देखा गया है कि जीएसटी विभाग द्वारा जारी किए गए नोटिसों की संख्या बढ़ रही है और यह संख्या जीएसटी लागू होने के पहले की अप्रत्यक्ष कर प्रणाली की तुलना में बहुत अधिक है। जब अप्रत्यक्ष कर प्रणाली को कमियों को दूर करने के लिए जीएसटी लाया गया था, तब इसकी परिकल्पना नहीं की गई थी क्योंकि सबसे बड़े सुधर के नाम पर जीएसटी को द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था। इन नोटिसों के निस्तारण में मानवीय हस्तक्षेप बहुत अधिक है और यही मुख्य समस्या की ओर भी संकेत करता है। इस समस्या को कम करने के लिए पूरे सिस्टम और प्रासंगिक प्रक्रियाओं को एक बार पिफर से देखने की आवश्यकता है ताकि जीएसटी सरलीकरण की और आगे बढ़ सके।
11. पंजीकरण के लिए एसओपी अर्थात (Sandard Operating Procedure) यथाशीघ्र जारी की जानी चाहिए। जीएसटी पंजीकरण के लिए मांगे जा रहे दस्तावेजों और पूछताछ पर हर जगह अलग-अलग है और पंजीयन जारी करने का समय भी हर जगह एक जैसा नहीं है। कई बार पंजीयन में बहुत अधिक वक्त भी लगता है। पंजीकरण के लिए कई बार अतार्किक सवाल और असंबंधित दस्तावेज मांगे जा रहे हैं। इस समस्या को हल करने के लिए SOP मानक ऑपरेटिंग सिस्टम पेश किया जाना चाहिए ताकि यह समस्या हल हो सके।
12. ई-इन्वोइस के मामले में, यदि ई-इनवोइस की प्रति इस सम्बन्ध् में जारी साईट पर रखी नहीं जाती है तो यदि डीलर इस तरह से ई-इन्वोइस की काॅपी रखना भूल जाता है तो उक्त ई-इन्वोइस की प्रति (आईआरएन और क्यूआर कोड के साथ) जनरेशन के 3 दिनों के बाद ई-इनवाॅइस पोर्टल साईट से प्राप्त करने का कोई विकल्प नहीं है। ऐसे महत्वपूर्ण दस्तावेज की पुनप्राप्ति पर कोई सीमा नहीं होनी चाहिए जिस पर प्राप्तकर्ता का ITC निर्भर है और इसे हमेशा ही ई-इनवाॅइस पोर्टल पर रिकाॅर्ड के रूप में उपलब्ध रखना चाहिए।
13. पूरे देश में ई-वे बिल प्रावधनों को कुछ अपवादों को छोड़कर मॅल्य, दूरी, इंट्रा-सिटी आदि के संदर्भ में नियम सुव्यवस्थित और समान करने की आवश्यकता है, लेकिन वर्तमान में बहुत सारे राज्यों में इसके विभिनन अपवाद बहुत अधिक हैं। ई-वे बिल से संबंध्ति चूक, विशेष रूप से वैधता समाप्ति के मामलों पते के नाम में मामूली गलती आदि में दंड को युक्तिसंगत बनाने की आवश्यकता है, जिसके परिणामस्वरूप राजस्व हानि नहीं होती है। धारा 129 और 130 को कब लागू किया जा सकता है, इसके बारे में विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए जाने की आवश्यकता है। ई-वे बिल की सीमाएं इस उदाहरण की तरह एक ही समान तय की जा सकती है। आइये इसे एक उदाहरण के जरिये समझें-
क्र.सं. सप्लाई का प्रकार रकम
1. एक ही शहर के भीतर रु. 2 लाख
2. एक ही राज्य के भीतर रु. 1 लाख
3. अंतर्राज्यीय आपूर्ति रु. रु. 50000.00
यहां समस्या यह है कि जब एकल पैन वाले डीलर का एक से अधिक राज्यों में पंजीकरण होता है, तो सभी राज्यों में सीमाएं अलग-अलग होने पर गलतियों की संभावना अधिक होती है। ‘एक देश एक कर’ की अवधारणा को ध्यान में रखते हुए एक समान सीमा तय की जानी चाहिए।