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Agency | Jun 17, 2021 | Expert View
चेक-बाउंस के मामले जल्दी निपटाने की जरूरत
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही निर्देश दिए है कि चेक बाउंस मामलों के मुकदमों में जल्द से जल्द फैसला होना चाहिए। कोर्ट ने एक अध्ययन का उल्लेख किया, जिसमें 35 लाख से ज्यादा चेक बाउंस के मुकदमे लंबित बताए गए हैं, जिनके कारण जिला अदालतों में क्रिमिनल केसेज की संख्या 15 फीसदी बढ़ गई है। चेक डिसऑनर होने के बाद लंबी मुकदमेबाजी की तरफ कोर्ट का ध्यान उस समय गया, जब वह 2005 के एक मुकदमे की सुनवाई कर रहा था।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चेक डिसऑनर मामलों में एविडेंस के रूप में शपथ पत्रों को मान्य किया जा सकता है। इसमें गवाहों का परीक्षण उनकी मौजूदगी में करना जरूरी नहीं है। इस सिलसिले में कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा है कि वह निगेशिएबल इंस्ट्रुमेंट एक्ट में आवश्यक संशोधन करे, जिससे चेक-बाउंस मामलों की सुनवाई ज्यादा से ज्यादा 12 महीनों में पूरी की जा सके।
1989 तक चेक लेने के बाद पेमेंट नहीं मिलने के मामालों को सिविल लायबिलिटी माना जाता था। बाद में निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट (एनआई) एक्ट 1881 की धारा 138 में संशोधन करते हुए इसे क्रिमिनल लायबिलिटी में तब्दील कर दिया गया। इसके पीछे यह उद्देश्य था कि चेक जारी करने वाली की जिम्मेदारी तय हो। चेक डिसऑनर होने की स्थिति में उसे दंडित किया जा सके। उस पर पेनल्टी लगाई जा सके। इसमें यह व्यवस्था भी है कि चेक जारी करने वाला प्रताड़ित न हो।
इससे पहले चेक डिसऑनर होने के बाद चेक देने वाले के खिलापफ आईपीसी की धरा 420 के तहत धोखाधड़ी का मुकदमा किया जा सकता था। इसमें यह साबित होना जरूरी था कि चेक देने वाले की तरफ से धोखाधड़ी की गई है और सिर्फ चेक डिसऑनर होने से धोखाधड़ी साबित नहीं होती। एनआई एक्ट में अपर्याप्त राशि होने के कारण चेक डिसऑनर होने पर चेक जारी करने वाले के इरादों पर संदेह नहीं किया जाता है।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट के ध्यान में यह आया है कि अदालतें लंबित मुकदमों के बोझ से दबी हुई है। ऐसे में चेक रिटर्न को अपराध् मानने का मूल उद्देश्य खत्म हो जाता है और चेक सिस्टम की क्रेडिबिलिटी सवालों के घेरे में आ जाती है। मौजूदा प्रावधनों में पर्याप्त सेफगाॅर्ड हैं। चेक डिसऑनर होने पर 30 दिन के भीतर नोटिस दिया जाता है और चेक देने वाले को 15 दिन के भीतर पेमेंट करने का मौका दिया जाता है। इसके बाद एक महीने के भीतर शिकायतकर्ता मुकदमा दायर कर सकता है।
धारा 138 के प्रावधन चेक के उपयोग की विश्वसनीयता कायम करने के लिए बनाए गए थे। सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया है कि इन मामलों के लिए एडिशनल कोट्र्स भी बनाई जा सकती हैं। लेकिन इसमें काॅस्ट ज्यादा है और लाॅजिस्टिक इश्यू भी हैं। ऐसे में अन्य उपायों पर भी विचार किया जाना चाहिए। रिटन्र्ड चेक का बेनीफीशियरी हमेशा पर्याप्त डाॅक्यूमेंट्री प्रूफ के साथ क्रिमिनल केस करता है और चेक जारी करने वाले बैंक का रिटर्न मेमो पेश करता है। ऐसे में कोर्ट सिर्फ सबूत देखकर चेक देने वाले के खिलाफ फैसला कर सकता है। ऐसे में मुकदमा लंबा खींचने की कोई जरूरत नहीं है। एक तरफ से इन मामलों में ऑटोमेटिक कन्विक्शन होना चाहिए। कानूनी प्रावधनों में संशोध्न करते हुए ऐसा किया जा सकता है। बैंकों में चेक-रिटर्न के मामलों का डाटाबेस भी बनाया जा सकता है, जिससे कन्विक्शन से पहले सरकारी एजेंसी वेरिफि केशन कर सकती है।
जमानती या गैर जमानती वारंट जारी करने का फैसला डाॅक्यूमेंट्री एविडेंस पर आधरित होता है। ऐसे में लोग अपर्याप्त राशि होने पर चैक इश्यू करने से बचेंगे। चेक का उपयोग कम करना भी संभव है। एनईपफटी, आईएमपीएस, आरटीजीएस आदि के जरिए डिजिटल पेमेंट की व्यवस्था भी बन गई है, जो वर्ष के पूरे 365 दिन रोजाना चैबीस घंटे उपलब्ध् है। छोटे पेमेंट के लिए चेक जारी करने पर पाबंदी भी लगाई जा सकती है। इसके लिए निगोशिएबल इंस्टुªमेंट एक्ट में संशोधन किया जा सकता है।
चेक ट्रांजेक्शन को चार्ज बढ़ाकर महंगा किया जा सकता है, जिससे लोग अपने आप डिजिटल पेमेंट सिस्टम की तरफ झुकेंगे। चेक सिस्टम में बैंक की बहुत काॅस्ट लगती है। कस्टमर भी चेक का बहुत उपयोग करते हैं। चेक ट्रंकेशन सिस्टम के जरिए क्लीयरिंग में समय भी खर्च होता है।
यूरोपीय संघ के 27 में से 20 सदस्यों ने अपने यहां चेक से लेनदेन की प्रथा समाप्त कर दी है और वहां एक व्यक्ति साल में सिपर्फ 2 चेक जारी कर सकता है। भारत में मोबाइल फोन का उपयोग बढ़ गया है और इंटरनेट का भी चलन है, इसलिए यहां भी आसानी से पेपरलेस बैंक ट्रांजेक्शन किया जा सकता है।
Fernando Kittredge 1 year ago
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