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Shambhu Kumar, Patna | Feb 11, 2021 | Social Update
जीवन दर्शन-यक्ष प्रश्न:"चिंतन नहीं करोगे तो चिंता करना ही होगा" सृष्टि के हर कालखंड की विकास यात्रा का मूलाधार रहा है चिंतन की नैसर्गिक प्रवृति मस्तिष्क में चिंतन की उत्पत्ति हृदय में भावनाओं की उत्पत्ति से ही है संभव पद, प्रतिष्ठा,पैसा और प्रभाव की पराकाष्ठा पर पहुंचने के बाद भी मनुष्य क्यों है निरुपाय और असहाय? इन्हीं सवालों का जवाब खोजने के लिए प्रस्तुत है जीवन संदेश का आज का यह कॉलम
मानुष शब्द से 'मनुष्य' तक के सफर की हर कालखंड के गहन मंथन का कुल फलाफल यह है कि चिंतन ही मनुष्यता का आधार रहा है। चिंतन के बगैर जीवन का कोई भी कार्य समस्या का आधार बन जाता है। आकर्षण और आधुनिकता पर आधारित जीवन ने मानव को संवेदनशून्य बना दिया है। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मनुष्य का उत्थान और पतन उसके अंदर के भाव से तय होता है। बिना भाव का आदमी इंसान में तब्दील नहीं हो सकता है चाहे वह भाव साहित्य का हो,संगीत का हो,अध्यात्म का हो या परोपकारी प्रवृति का हो। आम तौर पर हर रिश्ता बोझ बन गया है लेकिन भाव ही एकमात्र ऐसा माध्यम है जो एक दूसरे का सहारा बन जाता है। जब तक भाव की उत्पत्ति नहीं होगी तब तक मस्तिष्क में चिंतन की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती।
प्रकृति का पर्याय प्रेरणा है और प्रेरणा का उद्गम चिंतन है।
साहित्य ही एकमात्र माध्यम है जो मनुष्य में संवेदना का संचार करती है और विध्वंसकारी चिंतन से विमुख रखते हुए सकारात्मक चिंतन की दिशा की ओर प्रेरित करती है, कहा जाता है कि प्रकृति का पर्याय प्रेरणा है और प्रेरणा का मूल उद्गम चिंतन ही है, जबकि वही मानव आज चिंतन के अभाव में ही चिंता से घिरा रहता है, चिंतन के अभाव में ही मानव जीवन संवेदनशून्य हो चुका है। सारा संबंध स्वार्थ और आकर्षण की साक्षी में तार-तार हो चुका है।
थोड़ी सी भावनात्मक ठेस से आत्मघाती कदम उठाने से बचाता है सकारात्मक चिंतन
बाहर से सजा सांवरा रहने वाला मानव अंदर की भावनाओं से आज पूरी तरह टूट चुका है, भावनाओं के स्पंदन का अभाव आज महामारी का रूप लेता जा रहा है पद, पैसा,प्रतिष्ठा और प्रभाव की पराकाष्ठा पर पहुंचने के बाद भी मनुष्य निरुपाय और असहाय महसूस करने लगा है, अगर हम इस समस्या के मूल की तलाश करें तो निष्कर्ष यही निकलता है कि चिंतन नहीं करोगे तो चिंता करना ही होगा। अखबारों की सुर्खियों पर नजर दौड़ाएं,टेलीविजन पर चलने वाली विभिन्न धारावाहिकों को देखें, हॉलीवुड और बॉलीवुड से जुड़ी चर्चित सेलिब्रिटीज के उदाहरण को देखें, थोड़ी सी भावनात्मक ठेस पहुंचाने के बाद आत्मघुटन की स्थिति में आत्महत्या करते अपने अस्तित्व को ही मिटा लेते हैं जिसके निर्माण के लिए वे जीवनपर्यंत संघर्षरत रहे हैं।आमतौर पर हर आदमी आकर्षण के प्रभाव में जीता है जबकि चिंतन करने वाला व्यक्ति जीवन के यथार्थ को जीता और भोगता है। आकर्षण प्रिय व्यक्ति एकांत में भी अशांत रहता है वहीं यथार्थ प्रिय व्यक्ति भीड़ में भी शांत रहता है।
सकारात्मक चिंतन रूपी संजीवनी ही है सफल जीवन जीने का एकमात्र उपाय
आज की वर्तमान शिक्षा पद्धति,मनुष्य के दिनचर्या से उपजी हुई आदत,आहार-विहार से प्रभावित जीवनशैली मनुष्य के चिंता का आधार बन गया है। सकारात्मक चिंतन की संजीवनी से ही इस समस्या का निदान सम्भव हो सकता है। मानव योग्यता या विभिन्न उपादानों से कार्य तो संपन्न कर लेता है लेकिन सकारात्मक चिंतन के बगैर जीवन सफल नहीं हो सकता है। कार्य सफल होता है परिश्रम से, संतुष्ट होता है तरीका और विश्वास से लेकिन जीवन धन्य होता है सेवा और त्याग से। व्यक्ति मर सकता है या मारा जा सकता है लेकिन विचारधारा चिंतन की कोख से जन्म लेकर अमर हो जाता है जिसे इतिहास याद करने को मजबूर होता है।
बगैर आत्म अवलोकन और आत्म चिंतन से यथावत रहेगी यह समस्या
मनुष्य आज प्रकृति की प्रवृति से विमुख हो चुका है, उसकी सोच और आदत से उपजी हुई समस्या ने अनसुलझा सवाल खड़ा कर दिया है। बाह्य योग्यता से कार्य तो सफल हो सकता है लेकिन जीवन की सफलता सकारात्मक चिंतन से ही संभव है।आत्म अवलोकन और आत्म चिंतन से ही सफल जीवन की परिकल्पना की जा सकती है। प्रकृति ने तो भाव की साक्षी में आनंद लेने के लिए संसार में भेजा था लेकिन संसार के क्षणिक सुख के लिए मानव खुद अपने जीवन को पीड़ा का पर्याय बना दिया है। इस चक्रव्यूह से निकलना आत्म चिंतन और आत्म अवलोकन से ही संभव है। आंख खोलकर कम और आंख बंद करके मन की आंखों से देखना होगा, तमाम दुख और पीड़ा मानव के द्वारा खुद उपजाया गया फसल है समृद्धि की पराकाष्ठा पर पहुंचने के बाद भी घर में बने हुए विभिन्न प्रकार का स्वादिष्ट व्यंजन भाव के अभाव में फीका पड़ जाता है फलतः सारा जीवन फीका पड़ गया है। आरामतलबी संसाधन भी नींद नहीं दे पा रही है। आज औपचारिकता की अंधी दौड़ और आकर्षण की उपलब्धि जीवन के यथार्थ से कोसों दूर लाकर खड़ा कर दिया है। अब जीवन का थका मन यह सोचने को मजबूर हो गया है और स्वयं से भी यह यक्ष प्रश्न पूछ रहा है कि मानव का जीवन दुख और पीड़ा के लिए होता है क्या? जबकि जबकि सच्चाई यह है कि तमाम दुख और पीड़ा खुद मानव के द्वारा उपजाया हुआ जीवन का फसल बन गया है और यह फसल काटने को मानव स्वयं मजबूर हो गया है।
शाश्वत सत्य मृत्यु की भी करनी पड़ेगी तैयारी तभी धन्य हो सकता है मानव जीवन
मानव शिक्षा से किसी पद,प्रतिष्ठा और प्रभाव को प्राप्त करने की तैयारी करता है,शादी की तैयारी करता है, संपर्क को संबंध के सफर तक पहुंचाने की तैयारी करता है लेकिन अगर वह जीवन के शाश्वत सत्य मृत्यु की तैयारी भी मानव मन अगर कर ले तो सारा संबंध और मनुष्यता तार-तार होने से बच जाएगी। इतने महत्वपूर्ण बिंदु के लिए हमें समय तो देना ही होगा, इसलिए ही तो सदी के महान विचारक स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि जो कहे कि हमारे पास समय नहीं है, हम व्यस्त हैं दरअसल वह चिंतन के अभाव में अस्त-व्यस्त है।
राष्ट्रकवि दिनकर जी ने अपनी रचना के माध्यम से भी सचेत रहने का दिया था संदेश
आज मानव के समक्ष यह यक्ष प्रश्न खड़ा है कि चिंतन के अभाव में मनुष्य का सारा जीवन चिंता का पर्याय बन गया है। जबकि जीवन की शाश्वत सच्चाई को महाकवि रामधारी सिंह दिनकर की इन पंक्तियों के माध्यम से सहजतापूर्वक समझा जा सकता है:
"रोते जग की अनित्यता पर, सभी विश्व को छोड़ चले
कुछ तो चले चिता की रथ पर, कुछ कब्रों की ओर चले
रुके न पलभर मित्र-पुत्र,माता से नाता तोड़ चले
लैला रोती है किंतु कितने मजनूं मुंह मोड़ चले"