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Agency | Aug 16, 2022 | Social Update
मैं भारत हूं, मुझे वेदों की ऋचाओं ने जन्मा है
.मेरे परिचय के लिए इतना ही पर्याप्त है कि अमृत-स्वरूपा गंगा मेरी मां है।
.मैं ऋषियों के आश्रम में पला हूं, युगपुरुषों की अंगुली थाम के चला हूं और संघर्षों की प्रचंड अग्नि में जला हूं।’
.बलिदानियों के रक्त से भीगी हुई मेरी वादियां हैं, मेरे माथे पर स्वतंत्रता का पचहत्तरवां सूर्य चमक रहा है, क्योकि मेरे सीने में शहीदों की समाधियां हैं।
मेरे इतिहास का पहला पन्ना तब लिखा गया था, जब मनुष्य ने समय को दिन और तारीखों में बांटना नहीं सीखा था। दस हजार वर्ष पहले मेरा खाका बनना शुरू हुआ, लेकिन इतना पुराना इतिहास सिद्ध करने के लिए आज मेरे पास साक्ष्य नहीं हैं।
लोग सवाल उठाते हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता को तो 3400 साल ही हुए हैं, फिर मैं 10 हजार वर्षों के इतिहास का दावा क्यों करता हूं? मैं क्या उत्तर दूं इन इतिहासकारों को, जो ईंट-पत्थरों की गवाही के बिना गूंगे हो जाते हैं।
3400 साल पहले के अवशेष तो उन्हें दिखते हैं, लेकिन 5000 वर्ष पहले, कुरुक्षेत्र में शस्त्र त्याग चुके अर्जुन को गीता का ज्ञाने देते कृष्ण नहीं दिखाई देते, 7000 वर्ष पहले सरयू के तट पर सूर्य को अध्र्य देते श्रीराम नहीं दिखाई देते, और 8000 वर्ष पहले रची गई ऋग्वेद की ऋचाएं नहीं दिखाई देतीं।
आज मानचित्र पर मेरी जो छवि है, मैं हमेशा से ऐसा नहीं था। अनेक टुकड़ों में कटा हुआ था, जनपदों-महाजनपदों में बंटा हुआ था। फिर एक दिन, तक्षशिला में जन्में मेरे एक पुत्र ने अपनी शिक्षा खोल दी, और यहीं से मेरे अखंड राष्ट्र बनने का मार्ग भी खुल गया। खंड-खंड बिखरे हुए मेरे अंग, एक ध्वजा तले सिमट आए।
आज की भौगोलिक भाषा में कहूं, तो चाणक्य और चंद्रगुप्त ने मुझे बिहार से बलोचिस्तान और कश्मीर से कंधार तक फैला दिया। मैं अपनी भुजाओं का विस्तार देख कर प्रसन्न था, लेकिन अशोक की वीरता अपने दादा चंद्रगुप्त के साम्राज्य को कुछ और बढ़ाने के लिए संकल्पबद्ध थी। अशोक ने मेरे बाजू, तक्षशिला से ईरान तक खोल दिए। मेरा विस्तार पूरे विश्व को अचंभित कर रहा था, भौगोलिक और आध्यात्मिक दोनों रूपों में।
एक तरफ मेरे हाथों में चमकती हुई तलवारें लहरा रही थीं, तो दूसरी ओर मेरे गले से बुद्ध और महावीर की वाणी गूंज रही थी। फिर कई सदियां बीत गई। मैं समय के धरातल पर कभी दौड़ा, कभी चला, कभी घुटनों के बल रेंगा, लेकिन रुका कभी नहीं, मुझे कृष्ण के वचन हमेशा याद रहे, ‘कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः’
यदि मैं सीधे हाथ से कर्म करूंगा तो मेरे उल्टे हाथ में विजय अवश्य होगी
कर्मयोग के सिद्धात पर चलता हुआ मैं वैभव और संपदा के शिखर पर जा पहुंचा। मुझे सोने की चिड़िया कहा जाने लगा और मेरी चमक सुदूर देशों में बैठे लुटेरों और आक्रमणकारियों को लुभाने लगी। अरब, महमूद, तुर्क, तैमूर, मंगोल, घोड़ों पे चढ़ के धुल उड़ाते हुए आए और मेरे मंदिरों का सोना चुरा ले गए, मेरे ग्रंथ जला दिए, मेरा इतिहास छिन्न-भिन्न कर दिया। अनगिनत घाव लगे मेरे बदन पर, लेकिन विश्व-बंधुत्व का आदर्श छाया रहा मेरे मन पर। मैं परदेसी शमशीरों की चोट खाता रहा और ‘अतिथि देवो भव’ दोहराता रहा। मेरी यही शांतिप्रियता सात समंदर पार से आए हुए अंग्रेजी सौदागरों के लिए वरदान बन गई। मेरे राजाओं के दरबार में जमीन पर नाक रगड़ने वाले गौरे, अचानक राजसत्ताओं के स्वामी बन बैठै।
विक्टोरिया की भेजी हुई बेड़ियों ने मुझे ऐसे जकड़ लिया, कि मेरी रक्तशिराएं पीड़ा से कराह उठीं। सैकड़ों वर्षों तक विश्वासघात के धुए में मेरा दम घुटा, मुझे याद भी नहीं आता कि कितनी बार मेरी गरिमा का हनन हुआ, कितनी बार मेरा स्वाभिमान लुटा।
लेकिन मैंने भी ऐसे लाल पैदा किए थे, जो ‘रंग दे बसंती’ गा के मेरे लिए फांसी के तख्ते पर झूल गए, ऐसी बेटियां जन्मी थीं, जो दुधमुंहे बच्चे को पीठ पर बांधकर अंग्रेजों से जा भिंड़ी, और उनकी लाल वर्दियों के धागे खोल दिए। मेरा एक बेटा अल्फ्रेड पार्क में एक पिस्तौल लिए अनगिनत अंग्रेजी राइफलों से लड़ गया और जब पिस्तौल में आखिरी गोली बची, तो वंदे मातरम् बोलकर मेरे चरणों में भेंट चढ़ गया। जो हाथ मेरी ओर बढ़े, मेरे वीरों ने काट कर फेंक दिए..जो आंख मुझ पर उठीं, वो बुझ गई हमेशा के लिए।
बलिदानियों के रक्त से भीगी हुई मेरी वादियां हैं, मेरे माथे पर स्वतंत्रता का पचहत्तरवां सूर्य चमक रहा है, क्योकि मेरे सीने में शहीदों की समाधियां हैं।