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Shambhu Kumar | Apr 12, 2021 | Social Update
⏩ सृष्टि के अस्तित्व पर खतरा बन गई है सदुपयोग की जगह उपभोग की प्रवृति
⏩ चिंतन और मनन के अभाव में संवेदना में आई है गिरावट तो नैतिक मूल्यों का भी हुआ ह्रास
⏩ ज्ञान रूपी फूल तो खिल गए लेकिन विवेक रूपी सुगंध के अभाव में चिंताग्रस्त हो गया है जीवन
⏩ प्रदर्शन से नहीं बल्कि दर्शन की नींव पर ही सुदृढ होगी मानवता की भव्य इमारत
सृष्टि की रचना व उत्पत्ति के प्रसंग में यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि संसार में कोई भी रचना व उत्पत्ति बिना कर्त्ता के नहीं होती। इसके साथ यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि कर्ता को अपने कार्य का पूर्ण ज्ञान होने के साथ उसको सम्पादित करने के लिए पर्याप्त शक्ति वा बल भी होना चाहिये। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यह सृष्टि एक कर्ता जो ज्ञान व बल से युक्त है, उसी से बनी है। वह स्रष्टा कौन है? संसार में ऐसी कोई सत्ता दृष्टिगोचर नहीं होती जिसे इस सृष्टि की रचना का अधिष्ठाता, रचयिता व उत्पत्तिकर्ता कहा व माना जा सके। अतः यह सुनिश्चित होता है कि वह सत्ता है तो अवश्य परन्तु वह अदृश्य सत्ता है।उसी अदृश्य सत्ता ने ही अनंत,अथाह और अज्ञात ब्रह्मांड के साथ हमारे अस्तित्व का भी निर्माण किया है जिसे हम सृष्टि कहते हैं।84 लाख योनियों के रचयिता ने सिर्फ मानव में ही विवेक और संवेदना के दुर्लभ गुण दिए हैं जो उसे अन्य प्राणियों से अलग करता है लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि आज इसी विवेक और संवेदना के लगातार होते जा रहे क्षरण की वजह से सृष्टि पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।प्रकृति से दूर होकर कृत्रिम जगत को सर्वोपरि मानने वाला मानव खुद अपने हाथों से अपनी बर्बादी की पटकथा लिख रहा है फिर भी वह जग नहीं रहा है।सांसारिक सुख और आनंद के सागर में गोते लगाने वाले मनुष्य में चिंतन और मनन की सोच विलुप्त होती जा रही है फलतः आज घर,परिवार,समाज और देश में दुष्परिणामों का सैलाब उमड़ रहा है।बनावटी औपचारिकता की इस अंधी दौर में जीवन लक्ष्य ओझल होने का ही परिणाम है कि वह प्रकृति के प्रबंधन के स्थापित सत्य सृष्टि के साथ ही छेड़छाड़ करना शुरू कर दिया है तो स्वाभाविक ही है कि जीवन संकटग्रस्त बनकर असहनीय पीड़ा देगी ही।अगर हम तुलनात्मक रूप से मानव योनि की तुलना अन्य प्राणियों से करें तो पाएंगे कि केवल मानव ही प्रकृति से दूर होने का दुष्परिणाम झेल रहा है।जो प्रकृति के करीब है,वह प्राकृतिक रूप से स्वस्थ,सबल और सुदृढ है।भले ही मानव को विवेकवान कहा गया है लेकिन वास्तव में मानव की विवेकहीनता और मानवजनित क्रियाकलापों ने दूसरे प्राणियों की बर्बादी में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ रखी है।
दार्शनिक शंभू
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संवेदनहीनता और विवेकशून्यता की कोख से पैदा हुई है यह त्रासदी
विवेक के अभाव में केवल ज्ञान के बल पर दौड़ लगाने वाला मानव भले ही अंतरिक्ष की सतह की गहराइयों को नाप रहा हो लेकिन वह अमूल्य प्राणवायु का संरक्षण तक नहीं कर पा रहा है।अमृत तुल्य अपार जलराशि को मानवजनित क्रियाकलापों ने इतना दूषित कर दिया है कि सतयुग में किसी ने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि कुछ युगों के बाद हवा और पानी भी व्यापार की वस्तु बन जाएगी।प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण का मूल कारण केवल और केवल विवेकशून्यता ही है जिसे संवैधानिक व्यव्स्था से सिखाया और समझाया नहीं जा सकता है।एकमात्र उपाय चिंतन और मनन ही है जो दर्शन की सहायता से ही की जा सकती है।अपने और जैव जगत के सभी प्राणियों के जीवन को संकट में डालने वाला मानव सृष्टि में छिपी अनन्त संभावनाओं की रक्षा तभी कर सकता है जब उसकी मानसिकता के बंजर भूमि पर संवेदनाओं के फूल खिले अन्यथा सृष्टि के विनाश को कोई देवदूत भी नहीं रोक सकते हैं।
दोषारोपण नहीं बल्कि आत्मचिंतन से ही बदलेगी हालात
एक दूसरे पर थोपने या शिकायतों का अंबार लगाने से समाधान सम्भव नहीं है।सबों को अपने हिस्से की जिम्मेवारी निभानी ही पड़ेगी तभी सृष्टि का अस्तित्व बचाया जा सकता है अन्यथा जो भयावहता दिख रही है वह धीरे धीरे गंभीर रूप धारण करता चला जाएगा और हमारे पास हाथ मलने के अलावा और कुछ शेष नहीं बचेगा।न केवल प्राकृतिक संसाधन बल्कि ज्ञान और विवेक के बावजूद भी मानसिकता के निकृष्टतम स्तर पर पहुंचने का ही दुष्परिणाम है कि आज रिश्ता भी इस संकट से अछूता नहीं रहा है।मतलबी मानसिकता और व्यवहारिकता में औपचारिकता का अंधा दौड़ हर रिश्ते के साथ छल करता नजर आ रहा है।रिश्ते की हकीकत अब यह हो गई है कि सामान्य परिस्थिति में नजदीकी और करीबी कहने वाले जीवन के विपरीत समय की परीक्षा में असफल सिद्ध होते जा रहे हैं।
विवेक के चश्मे से ही दिखेगी सृष्टि की खूबसूरत संभावनाएं
दरअसल,जिस चीज को आकर्षण के चश्मे से देखा जाता है वह यथार्थ से कोसों दूर होता है तभी तो जब शरीर बीमार और परिस्थितिवश लाचार बन जाती है तो ऐसे समय में आकर्षण और अन्य कोई भी शक्ति काम नहीं आती है और हमारे पास पछताने के अलावा और कोई चारा नहीं रह जाता है।इन स्थितियों को देखकर यह यक्ष प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ज्ञान और विज्ञान के शीर्ष पर पहुंचने के बाद भी मानव अपने जीवन को विवेक के चश्मे से क्यों नहीं देख पाता है?जिन नकारात्मक वस्तुओं और भावनाओं को वह खुली आँखों से रोज हजारों बार देखता है,क्षण प्रतिक्षण अनुभव करता है,उसका दुष्परिणाम भी भोगता है फिर भी चिंतन और मनन के अभाव में वह हकीकत को नहीं देख पाता है जिसकी वजह से उसका जीवन चिंताग्रस्त बनकर रह गया है।संभावनाओं की इमारत दो बुनियादों पर टिकी हुई है,पहला सृजन और दूसरा क्षरण।विवेक रूपी चश्मे से सृष्टि की संभावनाएं अतिसुन्दर दिखती है जबकि विवेकहीन व्यक्ति को जीवन की तकरीबन हर संभावनाएं क्षीण ही नजर आती है।जीवन यदि संवेदनात्मक भाव की धुरी पर टिकी होती है तो विवेक आधार बनकर सुखद संभावनाओं की तलाश में जुट जाती है और उचित अनुचित का विभेद करने में भी सक्षम हो पाती है।
इस असाध्य व्याधि की एकमात्र दवाई है चिंतन और मनन
लेकिन ऐसा तभी सम्भव है जब मानव चिंतन और मनन को अपनी दिनचर्या में शामिल करे ताकि संसाधनों के अभाव में भी उसे अंतर्ज्ञान की प्राप्ति हो सके और वह कलयुग की अल्पायु अवधि में भी अपने जीवन को धन्य कर सके।यह निर्विवाद और प्रामाणिक सत्य है कि सकारात्मक विचारों की जननी केवल चिंतन और मनन ही है।चिंतन और मनन का ही कमाल है कि स्वयं के जीवन मे अगर हम दूसरे की सफलता को स्वीकार नहीं करते हैं तो ईर्ष्या का जन्म होता है और अगर स्वीकार कर लें तो यही प्रेरणा बन जाती है।
प्रकृति के प्रबंधन से तालमेल बिठाकर ही बची रह सकती है सृष्टि
वर्तमान युग की तुलना अगर सतयुग,द्वापर और त्रेता से करें तो हम यह देखते हैं कि प्रकृति तो यथावत ही है लेकिन मानव ने उसकी बर्बादी कर खुद को अल्पायु बना लिया है।सतयुग में एक लाख वर्ष,द्वापर में दस हजार वर्ष,त्रेता में एक हजार वर्ष लेकिन कलयुग में भले ही एक सौ वर्ष की आयु कही गई हो लेकिन अब वह साठ सत्तर की औसत आयु तक सिमट कर रह गया है।इसकी वजह क्या है?सूर्य,चन्द्र,ब्रह्मांड,आकाशगंगा आदि आदि तो यथावत ही हैं लेकिन मानव ने अपनी असंतुलित जीवनशैली और प्रकृति की उपेक्षा से खुद की निर्धारित आयु का क्षरण किया है।जल्दी और ज्यादा पाने की अंतहीन इच्छा की वजह से प्रकृति ने अपने प्रबंधन के द्वारा इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है फिर भी हम संभल नहीं रहे हैं।वास्तविक सच्चाई तो यह है कि जिस चीज का सदुपयोग नहीं होता है उसकी लंबी आयु नहीं होती है।सदुपयोग का स्थान जब उपभोग ने ले लिया तो प्रकृति के द्वारा उम्र छीन लेना स्वाभाविक ही तो है।हमें यह सदैव स्मरण रहना चाहिए कि संवेदनात्मक नियम से ही सृष्टि नियंत्रित और संतुलित रहती है।अंतर्मन के भाव के क्षरण से उत्पन्न इस स्थिति के लिए आत्मसमीक्षा करना समय की मांग है।
समाज के हर वर्ग को पुनर्विचार करने की है जरूरत
संवेदना की उदर से मानवतावादी सोच का जन्म होता है और जब तक ऐसी सोच उत्पन्न नहीं होगी तब तक सृष्टि संतुलित नहीं हो सकती है।विकसित और विकासशील का दम्भ भरने वाला समाज और देश जब तक प्रकृति के साथ संतुलन स्थापित करने में सक्षम नहीं बन पाएगा तब तक असंतुलित जीवन उसे तबाह और बर्बाद करती रहेगी जो चारों तरफ खुलेआम दृष्टिगोचर हो रहा है।हमें अपनी मानसिकता पर पुनर्विचार करने की प्रबल आवश्यकता है ताकि हम अपने सृजन या विध्वंस का रास्ता खुद तय कर सकें।मानव ने खुद जब अशांति का फसल बोया है शांति के फसल की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
खुद पर नियंत्रण और चिंतन से ही बचेगा मानव का अस्तित्व
हमें यह याद रखना होगा कि संवेदनशील व्यक्ति ही संभावना को देख सकता है जो कल्पनाओं में गोता लगाकर यथार्थ को सामने ला खड़ा करता है।यह सामूहिक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है।इसे स्वयं को जीतकर ही प्रथम और सर्वश्रेष्ठ विजय प्राप्त किया जा सकता है जो मानवता की रक्षा के लिए अनिवार्य शर्त है।सृष्टि की रक्षा के लिए खुद को नियंत्रित करना या खुद पर विजय प्राप्त करना ही एकमात्र उपाय है।यह ऐसा विजय है जिसे आपसे कोई नहीं छीन सकता है-न देवदूत,न राक्षस,न स्वर्ग और न ही नर्क!
भावी पीढ़ी को विरासत में पछतावा नहीं संभावनाएं देने की है दरकार
इस स्थिति में हमारा नैतिक दायित्व बनता है कि जिन संकटों के दौर से हम गुजर रहे हैं उस संकट का सामना हमारी भावी पीढ़ी को नहीं करना पड़े।क्षणिक सुख की खातिर हमने पर्यावरण को असंतुलन की पराकाष्ठा पर पहुंचा कर रख दिया है।पर्यावरण प्रदूषित,नदी नाले दूषित,मानसिकता मतलबी और संवेदना संकुचित हो गई है जिसका एकमात्र उपचार चिंतन और मनन ही है।दृढ़ संकल्पित होकर अगर हम व्यक्तिगत रूप से संवेदना की साक्षी में आत्मचिंतन का दामन थामने में सफल हो जाते हैं तो निश्चित रूप से हम इस सुंदर सृष्टि को अक्षुण्ण रखने की जिम्मेवारी का सरलता और सफलतापूर्वक निर्वहन करने में सफल हो पाएंगे।