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Agency | Oct 18, 2022 | Social Update
लक्ष्मी से परिपूर्ण बनें
जीवन में पर्याप्त धन हो तो हम धनवान अवश्य हो सकते हैं मगर ‘लक्ष्मीवान’ तो वहीं होता है जिसके जीवन में धन के साथ आरोग्य, रूप, सहकार और संबंधों की भी सम्पदा हो। ऐसी ही लक्ष्मी पूर्ण होती है। दीपपर्व के पांच दिनों में यही प्रेरणा निहित है।
अष्टलक्ष्मी आराधना
देवी रूप
लक्ष्मी को धन की देवी कहा जाता है। यह धन सिफ रुपए-पैसे और परिसंपत्तियों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके दायरे में विद्या, साहस, अन्न, संतान आदि भी आते है। इन सभी के होने से ही व्यक्ति का जीवन वास्तविक रूप में सुख, आनंद और संतुष्टि से पूर्ण होता है। इन्हें अष्टलक्ष्मी कहा जाता है।
आदिलक्ष्मी
देवीभागवत पुराण में कहा गया है यह आदिशक्ति का मूल रूप है। इन्हीं के द्वारा सृष्टि के आरंभ में त्रिशक्ति की उत्पत्ति हुई तथा इन्हीं से महाकाली एवं महासरस्वती साकार हुई
धनलक्ष्मी
इनका स्वरूप हाथ में स्वर्ण कलश लिए तथा अभय मुद्रा में है। भक्त ऋणमुक्ति तथा धन-सम्पन्नता के लिए इनकी आराध्नना करते हैं। प्रचलित कथा में देवी ने भगवान विष्णु की कुबेर के कर्ज से मुक्ति के लिए यह रूप धारण किया था।
धान्य लक्ष्मी
धन से पेट नहीं भरता, जीवन के लिए धन्य की परम आवश्यकता होती है। यही अन्नपूर्णा स्वरूप है, जो धन्यलक्ष्मी कहलाता है। ये धन-धान्य के साथ निरोगी काया भी प्रदान करती है।
राजलक्ष्मी
यह रूप हाथी पर सवार हो कमलपुष्प पर विराजमान है। इसे व्यक्ति को हर सुख सुविधा, यानी राजसुख देने वाला बताया गया है। हाथी पर सवार होने के कारण गजलक्ष्मी भी कहलाती है।
संतानलक्ष्मी
यह रूप संतान सुख प्रदाता है। इस सुख के लिए संतान का होना ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि दुर्गुणों से युक्त संतान कष्ट ही देगी। यह संतान के संस्कारी होने को रेखांकित करती है।
वीरलक्ष्मी
यह वीर रूप दर्शाता है। सभी प्रकार के अस्त्रा-शस्त्र धारण किए इस देवी रूप का संदेश है कि परिवार में सुख-शांति के साथ निडरता भी हो।
विजयलक्ष्मी
इस रूप में माता अभय का वर देती है और विजयी बनाती है। यह रूप जयलक्ष्मी भी कहा जाता है। कोर्ट-कचहरी, खेल, युद्ध में विजय प्राप्ति के लिए इसी अष्टभुजी रूप की पूजा की जाती है।
विद्यालक्ष्मी
यह माता का चतुर्भुज रूप है। इसमें उनका एक हाथ अभय मुद्रा में है तथा एक हाथ में वेद धारण किए हुए है। ज्ञान, समृद्धि, विद्या आदि के माहात्म्य का स्मरण कराती है इनकी आराध्नना।
दीपावली महापर्व के पांच दिन वस्तुतः पांच सम्पदाओं के प्रतीक हैं.....
हर दिन का अपना अलग संदेश है, किंतु ये आपस में सम्बंधित भी है और मिलकर एक सुखी, समृद्ध और संतुष्ट जीवन की राह दिखाते हैं। यही जीवन में ‘लक्ष्मी’ का वास कहलाता है।
धनतेरस: आरोग्य सम्पदा
कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी धनवंतरि की पूजा का दिन है। इसलिए कि सारे धन का तभी कोई अर्थ है जब हम स्वस्थ हों। अस्वस्थ व्यक्ति के लिए तीनों लोक के भोग भी निरर्थक हो जाते हैं। अमृत तक पीने के लिए स्वस्थ होना अनिवार्य है। समुद्र मंथन की पौराणिक कथा में अमृत कलश लेकर भगवान धनवंतरि का प्रकट होना इसी का संकेत है। वे आरोग्य के देवता हैं, सिखाते हैं कि जीवन में स्वास्थ्य और आरोग्य से बड़ा कोई धन नहीं।
नरक चैदस: सच्चा रूप
यह रूप सम्पदा का प्रतीक पर्व है। शास्त्रोक्त है, सच्चा रूपवान वह है जिसका मन निर्मल और परोपकार के भाव से भरा है। किसी गरीब को दिवाली की छोटी-सी खुशी देने का भाव व्यक्तित्व को असल रूपवान बनाता है। आरोग्य के साथ आंतरिक सौंदर्य का यही संदेश लिए रूप चतुर्दशी हमें, ‘सच्ची रूप सम्पदा’ साध्नने की सीख देने आती है। श्रीकृष्ण के हाथों नरकासुर के वध् का संदर्भ जुड़ा होने से यह नरक चतुर्दशी भी है।
लक्ष्मीपूजा: पुरुषार्थ दीप
दीपावली महारात्रि है। प्रतीक है कि संसार भी रात की तरह निष्ठुर है। हम सभी का जीवन अमावस की रात-सा ही है। पौराणिक मान्यताएं कहती हैं कि इस रात लक्ष्मी हर घर-द्वार पर दस्तक देती हैं। जो जागा हुआ मिलता है उस पर कृपा करती हैं और जो सोया पड़ा रहता है, पड़ा ही रह जाता है। लक्ष्मी अर्थात सुख, वैभव, सम्पदा उसी को मिलते हैं जो ‘अमावस के अंधेरे’ में ‘पुरुषार्थ के दीपक’ जलाने के लिए ‘व्रतपूर्वक जागता हो।’ जैसे खरा दीपक रातभर जागता है और अपने होने का पुरुषार्थ सिद्ध करता है, ठीक उसी तरह जाग्रत को ही लक्ष्मी की सिद्धि होती है, यानी मेहनत करने वाले को ही समृद्धि हासिल होती है।
गोवर्धन पूजा: सहकार
जब समाज में आरोग्य, पवित्र रूप और जागरण का आलोक फैलता है तो ‘कृष्ण पक्ष’ विदा हो जाते हैं। गोवर्धन पूजा का पर्व अनेक सम्पदाओं का प्रतिनिधि करते हुए दीपावली को पूर्णता प्रदान करता है, जिसके केंद्र में सहकार है। धन का सदुपयोग तो मिल-बांटकर भोग करने में ही है फिर चाहे नई फसलों की धन्यलक्ष्मी हो या गोवर्धन पूजा की पौराणिक कथा की तरह ब्रजमंडल का दूध्-घी। श्रीकृष्ण ने इंद्र के रूप में ‘राजा’ के एकाधिकार को चुनौती दी। समझाया कि पूर्व हो या पकवान, फसल हो या खुशी, सबके साथ साझा की जाए तभी धरती भी अन्नलक्ष्मी से निहाल करती है और खाद्य पदार्थों के ‘गोवर्धन’ खड़े हो जाते हैं।
भाईदूज: स्नेह सम्बंध
भाईदूज के साथ दीपावली की पंच दिनी पर्व श्रृंखला पूर्ण होती है। भाई का बहन के घर पर आना परिवार में आपसी मेलजोल का प्रतीक है। माता-पिता के बाद भाई-बहन ही हमारे सबसे निकट संबन्धी होते हैं। इनके परस्पर स्नेह सम्बंध् ही जीवन में किसी को सच्चा ध्नवान बनाते हैं। पौराणिक संदर्भों में यम और यमी/यमुना की कथा के बहाने भाई-बहन के नेह नाते की रक्षा के इस पर्व में हर तरह के सम्बंधें के प्रति दायित्व का भाव भी है। तभी तो भाईदूज के बहाने समाज ‘दीपावली मिलन’ के उत्सव सजा लेता है।