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Avnish Jain | Aug 18, 2021 | Editorial
बेडोल अर्थव्यवस्था के साथ उपलब्धियां
कुछ चीजें नहीं बदलतीं। शायद कभी नहीं। कहा जाता है कि इंसानों और समुदायों के पास आशा और निराशा का हमेशा समान अनुपात होता है। किसी भी स्थिति में, किसी मंजिल को पाने से पहले भी और मंजिल को पाने के बाद भी। इसलिए आजादी के सात दशक से भी ज्यादा समय बीत जाने के बाद हर साल 15 अगस्त के मौके पर हमें दोनों तरह के स्वर सुनाई देते हैं। वे स्वर भी जो उपलब्ध्यिों का बखान करते हैं। बेशक, देश के पास गिनाने के लिए बहुत सारी उपलब्ध्यिां हैं। नई भी, पुरानी भी। और ये हमेशा ही रही हैं। कोई भी जीवंत समाज जब आगे बढ़ता है, तो उपलब्ध्यिां हर कदम पर उसके स्वागत को तैयार बैठी होती है। लेकिन जो इन उपलब्ध्यिों के दूसरी तरफ देखते हैं, उनके पास भी कहने के लिए बहुत कुछ है। जब देश आजादी के लिए जूझ रहा था, तब सब मिलकर हर आंख के हर आंसू को पोंछने का सपना देख रहे थे। बहुत से अभाव, बहुत सी गैर-बराबरी, बहुत से भेदभाव और बहुत सी परंपराएं ऐसी थीं, जिनको खत्म करना पहली प्राथमिकता माना गया था। यह तो माना ही गया था कि देश में भले ही सब अमीर न हों, पर कोई गरीब नहीं रहेगा, कोई भूखा नहीं रहेगा और कोई किसी का दमन नहीं करेगा। इन सब को देखें, तो असफलताएं भी साफ समझ आ जाती हैं। अगर हमारे पास गिनाने के लिए उपलब्ध्यिां बहुत सारी हैं, तो नाकामियां भी कम नहीं हैं। एक मजबूत अर्थव्यवस्था के रूप में देश अगर अपने कदमों पर खड़ा हुआ है, तो यह बहुत बड़ी उपलब्धि है, खासकर यह देखते हुए कि आजादी के तुरंत बाद आर्थिक व खाद्य सुरक्षा के मोर्चे पर देश को कई संकटों से गुजरना पड़ा था। पर यह भी उतना ही बड़ा सच है कि अर्थव्यवस्था को खड़ा करने का जो सिलसिला बना, उसने देश से गरीबी का उन्मूलन नहीं किया। आर्थिक ही नहीं, सामाजिक मोर्चे पर भी ऐसे कई विरोधाभास देखे जा सकते हैं।
आजादी की पूरी लड़ाई हमने बुराई पर अच्छाई की जीत के तौर पर लड़ी थी। सोच यह थी कि विदेशी शासन हमारा शोषण कर रहा है। एक बार हम स्वाधीन हो जाएंगे, तो यह शोषण खत्म होगा और बहुत सारी समस्याएं अपने आप खत्म हो जाएंगी। जनमानस के स्तर पर यह आश्वस्ति शायद इतनी बड़ी हो गई थी कि आजादी हासिल करने के बाद समस्याओं से मुक्ति का मामला गौण हो गया और सारा जोर अपना तंत्रा बनाने पर ही दिया गया। जनमानस के स्तर पर अगर आजादी को एक माहौल बनना था, तो सरकार के स्तर पर उसे एक ऐसा औजार बनना था, जो हमें नई उपलब्ध्यिां भी दे और समस्याओं से मुक्ति भी। हम शायद इन दोनों ही दिशाओं में पूरी तरह सफल नहीं हुए।
हमें इसे दूसरी तरह से भी देखना होगा। हमारी उपलब्ध्यिां और कुछ नहीं, दरअसल हमारी क्षमताओं का परिचय पत्र हैं। दूसरी तरफ, हमारी असफलताएं इन उपलब्ध्यिों के साथ कंधा मिलाकर चलने वाली प्रतिबद्धता के अभाव और हमारी लापरवाहियों का नतीजा हैं। अब हमें ऐसा रास्ता अपनाना होगा कि उपलब्ध्यिों के साथ ही हमारी प्रतिबद्धता भी लगातार बढ़े। बल्कि उपलब्ध्यिों के मुकाबले दिन दूनी, रात चैगुनी रफ्रतार से बढ़ें, ताकि जब हमें जीडीपी के बढ़ने का आंकड़ा सुनाई दे, तो उसमें गरीबी के कम होने का आश्वासन भी दिखाई दे। आर्थिक ही नहीं, सामाजिक क्षेत्रा में भी उन प्रतिबद्धताओं को बढ़ाना होगा, जिन्हें हमने अपने स्वतंत्रता संग्राम में संजोया था।