+91-9414076426
Agency | Aug 28, 2021 | 100 Steps of Success
सफलता को खरीदा नहीं जा सकता
जिस प्रकार प्रसन्नता को पैसों से खरीदा नहीं जा सकता, उसी प्रकार सफलता को भी खरीदा नहीं जा सकता। जिस प्रकार प्रसन्नता को बाहर नहीं खोजा जा सकता उसी प्रकार सफलता को भी बाहर नहीं खोजा जा सकता। प्रसन्नता की तरह ही सफलता भी बाहर नहीं खोजा जा सकता। अपनी आन्तरिक शक्तियों को जगायें, मन चाही सफलता पायें।
सफलता कोई किन्तु-परन्तु नहीं है। सफलता बाजार में बिकने वाली वस्तु भी नहीं है। सफलता कोई गणितीय समीकरण भी नहीं है, सफलता का कोई सरलीकरण भी नहीं है। सफलता तो एक ऐसा सवाल है जिसे किसी सूत्रा द्वारा समझाया नहीं जा सकता। सफलता तो वस्तुतः एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब भी उसी में छिपा हुआ है। इसलिए अन्तर्निहित उत्तरों को खोजते हुए निरन्तर आगे बढ़ते रहें,सफलतायें तो स्वतः ही मिलती चली जायेंगी।
किसी तंत्र, मंत्र या यंत्र के माध्यम से आप सफल नहीं हो सकते। किसी अस्त्र, या शस्त्र या शास्त्र के माध्यम से भी आप सफल नहीं हो सकते। सफलता तो हर व्यक्ति की एक व्यक्तिगत तन्त्रिका है, जिसे सभी के लिए लागू नहीं किया जा सकता। इसलिए अपनी तन्त्रिका जगाइए, असफल होने का डर भगाइए। सफलता को ध्नन बल से नहीं, भीतर से ही मजबूत बनाते चलें, सफलता को ध्नन बल या भुज बल से नहीं आत्मबल से अपना बनाइए। आत्मबल को बाहर से नहीं, भीतर से ही मजबूत बनातें चलें, सफलता का वरण करते चलें। याद रखें, भीतर तो आपको ही उतरना पड़ेगा।
आदमी जितना अध्कि परिश्रम करेगा, उतना ही अधिक ध्नन अर्जित करेगा। जितना अधिक ध्नन, उतना ही अधिक परिश्रम अर्थात् सफलता परिश्रम से आरम्भ होकर परिश्रम पर ही समाप्त हो जाती है। सफलता शाश्वत नहीं है, शाश्वत तो श्रम ही है। सफलता तो श्रम का सह-उत्पाद है। ध्यान रहे, ध्नन को आने में तो देर लगती है, किन्तु जाने में नहीं लगती। यानि ध्नन को रोकने के लिए भी श्रम करना पड़ता है। श्रम और ध्नन एक दूसरे के पूरक हैं। श्रम भी तब ही फलीभूत हो पाता है, जब सकारात्मक सोच के साथ किया जाता है।
व्यक्ति को सम्पदा की बजाय सफलता की अधिक चिन्ता करनी चाहिए। जब कोई सफल होने लगता है, तब ध्नन अपने-आप आने लगता है। याद रखें, पैसे से पैसा तो कमाया जा सकता है किन्तु सफलता को नहीं पाया जा सकता। सपफलता को ध्नन से नहीं, मन से ही आंका जा सकता है। किसी के पास कितना ध्नन है, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण तो यह है कि कोई अपने ध्नन का सदुपयोग कितनी सफलता के साथ करता है।
सफलता तो एक कला है। कला व्यक्ति का आन्तरिक गुण है, कला को बाजार से नहीं खरीदा जा सकता। पर हां, कला से बाजार को अवश्य खरीदा जा सकता है। सफलता तो एक दर्शन है। दर्शन व्यक्ति का मंथन है। दर्शन को खरीदा नहीं जा सकता। पर हां दर्शन से सब कुछ पाया जा सकता है। जब कला और दर्शन का मिलन होता है, तब ही सफलता का कमल खिलता है।
सफलता ध्नन से नहीं, प्रसन्नता से आती है। प्रसन्नता दौलत से नहीं, दिल से आती है। दौलत आदमी को आलसी बनाती है, जबकि सपफलता क्रियाशील बनाती है। सपफलता तो जीवन का पर्याय है, जीवन का अर्थ है। सपफलता तो जिन्दगी की पहली व आखिरी शर्त है इसलिए शर्त से समझौता नहीं किया जा सकता, सफलता से समझौता नहीं किया जा सकता। सफलता तो जीवन की अनिवार्यता है। सजग, सक्रिय, सतत् प्र्रयत्नशील एवं प्रतिब( व्यक्ति के लिए सफलता दुष्कर नहीं है।
जिस प्रकार पैसे से प्यार नहीं खरीदा जा सकता, उसी प्रकार पैसे से पुण्य भी नहीं खरीदा जा सकता है। नैतिकता से पैसा तो कमाया जा सकता है किन्तु पैसे से नैतिकता को नहीं खरीदा जा सकता। मन की शान्ति के लिए तो सफलता का वरण करना ही पड़ेगा।
अगर ध्नन से ही सफलता को खरीदना संभव होता तो यहां कोई असफल ही नहीं होता। ध्नन तो उधर भी खूब मिल जाता है परन्तु सफलता का सौदा उधर नहीं होता। अर्थात् सफलता को नकद या उधर किसी भी तरह नहीं खरीदा जा सकता। पर हां, सफल व्यक्ति की बहुत बड़ी साख होती है। साख के बिना तो जिन्दगी राख होती है। जहां सफलता है, वहीं साख है।
दृष्टान्त
युवक लेवमेन को भावी महत्वाकांक्षी योजनाओं के साथ दार्शनिक युकाची के समक्ष प्रस्तुत किया गया और पूछा गया इन योजनाओं को पूरा करने के लिए क्या किया जाना चाहिए? युकाची ने योजनाओं की सूची को लौटाते हुए स्पष्ट किया कि इस सूची में प्रथम योजना का तो उल्लेख ही नहीं है, जिसके बिना बाकी योजनायें व्यर्थ हैं। इस पर लेवमेन के पिता जोशुआ ने चकित होकर पूछा जरा बताइए, कौनसी योजना छूट गई है? युकाची ने बताया प्रथम योजना होनी चाहिए, अपने स्वभाव एवं चरित्र का निर्माण, जिसके बिना न कोई व्यक्ति बड़ा कार्य कर सकता है और न कोई बड़ा बन सकता है। और यह सही है कि स्वभाव एवं चरित्र को खरीदा नहीं जा सकता। सफलता स्वभाव एवं चरित्र पर ही निर्भर करती है।